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Showing posts from January, 2019

*आस्था *

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  जब बात आस्था और प्रेम की आती है तो मुझे वह दिन याद आता है जब हमारे गांव में वह बुजुर्ग आए थे जिन्हें कोई नहीं जानता था और ना ही उन्होंने किसी को अपना परिचय दिया था ! अपने गांव के प्रति उनकी आस्था 20 सालों बाद उन्हें वहां लेकर आई थी ! गर्मियों के दिन थे 1 दिन सुबह - सुबह मैं दातून कर रहा था तभी मैंने देखा कि एक बुजुर्ग जिनके कपड़े मैले थे और जगह-जगह फटे हुए थे सामने आकर खड़े हो गए ! उन्होंने मेरी ओर देखा और बोले -...पीने के लिए पानी मिलेगा क्या ? मैंने उनकी तरफ ध्यान से देखा मैं उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहा था पर इससे पहले मैंने उन्हें कभी नहीं देखा था ! मैंने कुएं से पानी निकाल कर उन्हें पिलाया ! वह बोले भगवान तुम्हें हमेशा खुश रखे.... यह कहकर वह जंगल की तरफ चले गए मैं उन्हें जाते हुए देखता रहा मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह यहां ऐसे गांव में क्यों आए हैं जहां के लोगों में एक दूसरे के प्रति गुस्सा जलन और एक दूसरे को जान से मार देने की भावना हो हर व्यक्ति यहां अपने आप में राजा था किसी को किसी की नहीं पड़ी थी आज तक गांव में ना अस्पताल था ना विद्यालय और ना ही पक्की सड़के

"बेटियाँ "

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किस्मत वालों के नसीब में ही होती हैं बेटियां  कभी बहू कभी बेटी हर शक्ल में खिदमत करती हैं बेटियां हर घर की रौनक होती हैं बेटियों से एक आशियां को जन्नत बनाती हैं बेटियां मगर अफसोस ! आज का दौर क्या है ? अपनों के बीच ही महफूज नहीं है बेटियां एक अच्छी बहू तो चाहिए सबको यहां "महक"  फिर भी घर के आंगन में, क्यों खटकती है बेटियां हर राह चलती लड़की का लोगों को सिर्फ जिस्म दिखता है  जमाने की ऐसी गंदी सोच को कब तक सहती रहेंगी बेटियाँ  हर लड़की किसी की बहन, बेटी है क्यों यह सोच जमाने को नहीं भाती है कुछ घूरती हुई नजरें अनहोनी की दस्तक  हर वक्त डर के साए में रहती हैं बेटियां  आखिर क्यों है यह दहशत जो उन्हें डराती है यह कैसा खौफ है जिसे सोच कर ही वह सहम जाती हैं अब दिल पर रखिए हाथ और सोचिए जरा  "महक"  का है सवाल जवाब दीजिए जरा क्यों सोच ऐसी रखते हैं क्या हम उन्हें जरूरत का सामान दिखते हैं  या अब भी उनकी नजर में खिलौना है बेटियां एक बात अब भी मेरे मन को कचोटती है कि आखिर कब तक, सिसकती रहेंगी बेटियां सिसकती रहेंगी बेटियाँ........

"वजह"

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H हमारे जीवन में कई तरह के उतार -चढ़ाव आते रहते हैं और हम कोशिश करते रहते हैं उनसे बाहर निकलने की, परेशानियों से जूझते रहते हैं ! कभी -कभी मायूसी भी हो जाती है ! फिर कहीं से एक उम्मीद की छोटी सी किरण हमें नज़र आती है और हमारी कोशिशें फिर से ज़ोर पकड़ने लगतीं हैं ! इसके पीछे "वज़ह" होती है जो हमारी उम्मीदों को कभी कम नहीं होने देती ! एक ऐसी ही "वज़ह" से मैं इस कहानी के ज़रिये आप सब को रूबरू कराना चाहती हूँ ! बात उन दिनों की है जब रमेश कक्षा 12 में पढ़ता था ! वह एक ऐसे गाँव का रहने वाला था जहाँ पर विकास के नाम पर कुछ नहीं था ना पक्की सड़क थी, ना लाइट, और ना ही पढ़ने के लिए कोई विद्यालय, रमेश पास के ही गाँव के एक इंटर कॉलेज में पढ़ता था ! रमेश के माता - पिता मजदूरी करते थे, रमेश समझदार था वह जानता था कि माँ - बाबा  किस तरह अपना पेट काटकर उसे पढ़ा रहे है !  इसलिए वह खूब मन लगाकर पढ़ाई  करता था,  वह भी काम करके अपने माँ -बाबा का हाँथ बटाना चाहता था,  पर उस के पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा भी मजदूरी करे ! वह तो बस उसे पढ़ा - लिखा कर अफ़सर बनाना चाहते थे, इसलिए

"औरत "

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जब दुनियाँ में आई तो नाम मिला लड़की का किसी ने दुआयें दीं तो किसी ने लड़की होने पर कोसा किसी ने कहा लक्ष्मी है तो किसी ने नाम दिया पनौती का बचपन बीता जवानी आई तो नाम मिला पराये धन का विदा होकर ससुराल पहुँची तो नया रिश्ता नया नाम मिला किसी की बहू किसी की पत्नी किसी की भाभी होने का सम्मान मिला इन रिश्तों में ऐसी उलझी ज़िंदगी, कि खुद को भूल गई मेरी अपनी पहचान मैं खुद ही भूल गई पर अभी भी सिलसिला नहीं रुका रिश्तों का अभी तो अहसास बाक़ी था माँ बनने का एक नवजात बच्ची से लेकर माँ बनने का अहसास  मैं बयां नहीं कर सकती इतनी बड़ी ज़िंदगी को चंद पन्नों पर नहीं लिख सकती माँ बनने के बाद अहसास हुआ कि औरत क्या होती है हर रिश्ते को एक माला में पिरो कर रखती है....

"आरज़ू "

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आरज़ू थी तेरी कुछ इस क़दर हमें कि तेरी चाहतों के भॅवर में डूबते चले गए ना कुछ समझे ना समझना चाहा बस तेरे वास्ते मिटते चले गए तेरी ख्वाहिशों कि ख़ातिर खुद को भुला दिया फिर भी तेरी नज़र में गुनहगार हो गए इक सवाल अब भी करता है गुफ़्तगू तुम कैसे मेरे जिगर में बसते चले गए फुर्सत अगर मिले तो ये पूँछियेगा खुद से वो कौन सी खता  थी जो गैर हम हुए शिद्दत से चाहने का ईनाम ये मिला हम गैर थे और गैर बनकर ही रह गए अब बा खुदा ना करना "महक "एतबार सब पर ये राह चलते मुसाफ़िर हैं जो अपने नहीं हुए....

अनजान रिश्ता

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मै जिंदिगी  के सफर  पर  चली जा रही थी होकर बेखबर थोड़ी खुशियां थोड़े गम थे मेरी ज़िंदगी में मगर कभी सोचा ही  नहीं  था कि मेरी ज़िंदगी में कुछ कमी सी थी  प्यार, वफा, दोस्ती, भरोसा इसकी  जगह खाली सी  थी तभी एक  मोड़  पर  मेरी  मुलाकात  एक  अजनबी  से हुई उसे देखते ही  मन में  हलचल  सी होने  लगी उसकी  आँखों  में मुझे सच्चाई की  झलक  दिखाई दी बातों  बातों  में  ही  उससे  एक  रिश्ता  बन गया एक  अजनबी  ना  जाने  कब  खास बन  गया सिलसिला  चलता  रहा  रिश्तों  को  निभाने का हर खुशी  हर ग़म में  साथ निभाने का हम खुश  थे ज़िन्दगी में कुछ कमी ना थी अल्लाह ने ही तो हमें ये न्यामत दी थी तभी अचानक उस अजनबी को कुछ याद आया जिसे याद करते ही उसने हमारे "खास" रिश्ते को झुठलाया मैं डर गई ये सोच कर कि अब क्या होगा ? मेरी ज़िन्दगी का "अहम " हिस्सा बनकर कोई क्योंकर जुदा होगा मैंने मिन्नतें  की कि वो रिश्ता ना तोड़े ज़िन्दगी के सफ़र में मुझे यूँ  तनहा  ना छोड़े पर मेरी हर कोशिश नाकाम रही और मैं ज़िन्दगी के सफ़र पर फिर से अकेली रह गई