"आरज़ू "



आरज़ू थी तेरी कुछ इस क़दर हमें
कि तेरी चाहतों के भॅवर में डूबते चले गए
ना कुछ समझे ना समझना चाहा
बस तेरे वास्ते मिटते चले गए
तेरी ख्वाहिशों कि ख़ातिर
खुद को भुला दिया
फिर भी तेरी नज़र में
गुनहगार हो गए
इक सवाल अब भी करता है गुफ़्तगू
तुम कैसे मेरे जिगर में बसते चले गए
फुर्सत अगर मिले तो
ये पूँछियेगा खुद से
वो कौन सी खता
 थी जो गैर हम हुए
शिद्दत से चाहने का ईनाम ये मिला
हम गैर थे और गैर बनकर ही रह गए
अब बा खुदा ना करना "महक "एतबार सब पर
ये राह चलते मुसाफ़िर हैं जो अपने नहीं हुए....

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