अनजान रिश्ता


मै जिंदिगी  के सफर  पर  चली जा रही थी होकर बेखबर
थोड़ी खुशियां थोड़े गम थे मेरी ज़िंदगी में मगर
कभी सोचा ही  नहीं  था कि मेरी ज़िंदगी में कुछ कमी सी थी
 प्यार, वफा, दोस्ती, भरोसा इसकी  जगह खाली सी  थी
तभी एक  मोड़  पर  मेरी  मुलाकात  एक  अजनबी  से हुई
उसे देखते ही  मन में  हलचल  सी होने  लगी
उसकी  आँखों  में मुझे सच्चाई की  झलक  दिखाई दी
बातों  बातों  में  ही  उससे  एक  रिश्ता  बन गया
एक  अजनबी  ना  जाने  कब  खास बन  गया
सिलसिला  चलता  रहा  रिश्तों  को  निभाने का
हर खुशी  हर ग़म में  साथ निभाने का
हम खुश  थे ज़िन्दगी में कुछ कमी ना थी
अल्लाह ने ही तो हमें ये न्यामत दी थी
तभी अचानक उस अजनबी को कुछ याद आया
जिसे याद करते ही उसने हमारे "खास" रिश्ते को झुठलाया
मैं डर गई ये सोच कर कि अब क्या होगा ?
मेरी ज़िन्दगी का "अहम " हिस्सा बनकर कोई क्योंकर जुदा होगा
मैंने मिन्नतें  की कि वो रिश्ता ना तोड़े
ज़िन्दगी के सफ़र में मुझे यूँ  तनहा  ना छोड़े
पर मेरी हर कोशिश नाकाम रही
और मैं ज़िन्दगी के सफ़र पर फिर से अकेली रह गई

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